Partition of India was an indispensable and compulsive accident
प्रायः यह प्रश्न चर्चा में रहता है कि क्या 1947 में हुए भारत के विभाजन को टाला जा सकता था? या फिर, वह विभाजन अपरिहार्य एवं अनिवार्य था? इन प्रश्नों के संबंध में भारतीय इतिहासकारों, पाकिस्तानी इतिहासकारों व अंग्रेज इतिहासकारों के विचारों में सामान्यतः मतभेद पाया जाता है।
भारत में विभाजन को एक ‘महान दुर्घटना’ माना जाता है। इसे अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति तथा मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिकता तथा पार्थक्य के आदर्श का एक स्वाभाविक चरण माना जाता है। अंग्रेजों एवं लीग की नीतियों ने एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य किया तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को विभाजन स्वीकार करने पर बाध्य कर दिया। कुछ भारतीय लेखक विभाजन के लिये कुछ सीमा तक कांग्रेस के नेताओं को भी दोषी ठहराते हैं। उनका तर्क है कि यदि ये नेता पर्याप्त सूझ-बूझ तथा हिम्मत दिखाते तो मातृभूमि का बंटवारा रूक सकता था।
वहीं, पाकिस्तान में इस विभाजन को पूर्णतया तर्कसंगत तथा अनिवार्य माना जाता है। वे कभी स्वीकार नहीं करते कि स्वतंत्रता संग्राम में ‘मुस्लिम राष्ट्रवाद’ भी उपस्थित था। यह केवल भारतीय इतिहास में ही निहित है। अंग्रेज इतिहासकार और लेखक भी विभाजन की अनिवार्यता या टाले जा सकने के संदर्भ में एकमत नहीं हैं।
पंडित नेहरू के अनुसार मुसलमानों में साम्प्रदायिकता का कारण उनमें मध्यवर्ग के उभरने में देरी का होना था, जिसके कारण लीग ने मुस्लिम जनता में भय की भावना भर दी। ‘इस्लाम खतरे में है।’- इस नारे ने सभी मुसलमानों को एक झण्डे तले इक्ट्ठा कर मुहम्मद अली जिन्नाह को एक राजनीतिक मसीहा के रूप में स्थापित कर दिया। मुहम्मद अली जिन्नाह ने भी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा लाभ उठाया और अंत में ‘कायद-ए-आजम’ कहलाये।
भारतीय हिंदू संगठनों जैसे हिंदू महासभा आदि की भूलों और गलत कार्यों ने भी साम्प्रदायिकता एवं पृथकतावाद को बढ़ावा दिया। ऐसी परिस्थितियों में विभाजन एक अनिवार्यता बन गया था। फिर भी, यदि जिन्नाह और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं ने सूझबूझ दिखाई होती तो यह विभाजन एक त्रासदी/दुर्घटना न कहलाकर महज एक सहज तरीके से हुआ ‘विभाजन’ हो सकता था।