Role of Veer Kunwar Singh in the Revolution of 1857
भारत की स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के नायकों में बाबू वीर कुंवर सिंह का विशिष्ट स्थान है। तब गुलामी के बादलों के घने होने की शुरुआत ही हुई थी। अंग्रेज साम, दाम, दंड और भेद की नीति को अपनाते हुए भारत पर अपनी पकड़ को मज़बूत बनाने में लगे हुए थे। बहाने अलग-अलग थे। पर उनकी मंशा एक ही थी। किसी तरह भारत की स्थापित शासन व्यवस्था को तबाह करते हुए ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों पर यूनियन जैक को लहराना ताकि उनकी व्यापारिक स्वच्छंदता बढ़ती जाए और वह सोने की चिड़ियां कही जाने वाली धरा को अपनी मर्जी से लूट सकें।
1857 का विद्रोह हुआ, मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने मेरठ, झांसी और कानपुर में मोर्चा खोला। लगे हाथ बहादुर शाह जफर ने दिल्ली में अंग्रेज़ी हुकूमत मानने से इनकार करते हुए आजादी का उद्घोष कर दिया। बिहार में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों का नेतृत्व बाबू कुंवर सिंह के हाथों में आया जो भोजपुर जिले के थे। बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1777 में हुआ था। इस तरह 80 वर्ष की उम्र में उन्होंने उस साम्राज्य के नुमाइंदों से लोहा लिया जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
बाबू कुंवर सिंह के पिताजी साहबजादा सिंह मालवा के राजा भोज के वंशजों में से एक थे और उनके पास एक बड़ी जमींदारी थी। अंग्रेज़ों की हड़प नीति के चलते वह जमींदारी जाती रही। पूरे परिवार में अंग्रेजों के लिए वह वैमनस्य का भाव आ गया। बाबू कुंवर सिंह के अलावा उनके अनुज अमर सिंह ने भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। दोनों ने बड़ी शक्ति के खिलाफ छापामार लड़ाई की रणनीति को अपनाया और अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर दिया।
25 जुलाई 1857 को उन्होंने दानापुर के सिपाहियों के साथ मिलकर आरा शहर पर कब्ज़ा किया था और उसके बाद रामगढ़ के सिपाहियों के साथ बांदा, रीवा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाज़ीपुर और गोरखपुर जैसे कई ब्रिटिश ठिकानों पर अधिकार किया। उनके पास संसाधन अपेक्षाकृत कम थे । लेकिन उनकी रणनीति जोरदार थी। उनके सिपाहियों की छोटी टुकड़ी अंग्रेजों को छकाती रही। आजमगढ़ के पास अतरौलिया में हुई लड़ाई में बाबू कुंवर सिंह ने पीछे हट कर तेज प्रहार की गुरिल्ला नीति को अपनाया।अंग्रेजों को झांसा देने के लिए पहले वह पीछे हटते चले गए। उनकी इस रणनीति से अंग्रेज विजय के उल्लास में डूब गएं। अंग्रेजों की इस लापरवाही का फायदा उठाते हुए बाबू कुंवर सिंह की सेना ने अंग्रेजों पर करारा प्रहार किया जिससे अंग्रेजों की सेना के पांव उखड़ गए।
अपनी करारी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने फैसला किया कि इस बार बाबू कुंवर सिंह की सेना का पूर्ण विनाश किए बिना वापस नहीं लौटेंगे। बाबू कुंवर सिंह ने झट से अपनी रणनीति बदल ली और अपनी सेना को कई टुकड़ों में बांट दिया। इससे ब्रिटिश सेना दिग्भ्रमित हो गई। उन्हें जंगलों के बारे में ज्यादा मालूम नहीं था, जबकि बाबू कुंवर सिंह के सिपाही जंगल के चप्पे-चप्पे से अवगत थे। पुनः ब्रिटिश सेना को हार का सामना करना पड़ा।
इसी बीच झांसी, दिल्ली, कानपुर और लखनऊ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कमज़ोर पड़ गया। इन जगहों से मिलने वाली सहायता भी बंद हो गई। इससे बाबू कुंवर सिंह के हाथ भी कमजोर पड़ते चले गए। फिर एक रात बलिया के पास शिवपुरी तट से जब वह गंगा पार कर रहे थे तो अंग्रेजी सेना ने पीछे से हमला बोला। अंग्रेजों की एक गोली बाबू कुंवर सिंह के हाथ को भेदती हुई निकल गई। घाव काफी गहरा था। गोली का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था। बाबू कुंवर सिंह ने हंसते-हंसते अपना हाथ काट कर गंगा मैया के अर्पित कर दिया। इसी अवस्था में वह जगदीशपुर पहुंचे।
23 अप्रैल, 1858 को उनका राज्याभिषेक किया गया। ब्रिटेन का ध्वज यूनियन जैक उतार दिया गया। जगदीशपुर में स्वतंत्र भारत का झंडा लहराने लगा। इस झंडे को एक ऐसे नायक की बहादुरी ने थाम रखा था जिसके रगों में दौड़ने वाला खून 80 साल की उम्र में भी पूरी तरह से जवान और गर्म था। मगर अफसोस की विजयोत्सव के कुछ दिनों बाद ही बाबू वीर कुंवर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए और उसके बाद प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लौ धीरे-धीरे ठंडी होती चली गई।