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जानें क्या था पाइक विद्रोह

Know what was the paika rebellion (Author: Rajeev Ranjan)


साल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को हराकर ओडिशा पर कब्ज़ा किया। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने खोर्धा के तत्कालीन राजा मुकुन्ददेव-2 से पुरी के विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन छीन लिया।चूँकि मुकुन्ददेव-2 उस समय नाबालिग थे, इसलिए राज्य चलाने का पूरा भार उनके प्रमुख सलाहकार जयी राजगुरु संभाल रहे थे। जयी राजगुरु को यह अपमान बर्दाश्त नहीं था और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। लेकिन राजगुरु को कंपनी की फौज ने गिरफ्तार कर लिया और फांसी दे दी।


अंग्रेज शायद यह मानकर चल रहे थे कि जिस बेरहमी से राजगुरु को बीच चौराहे पर फांसी दी गई उससे सहमकर ओडिशा के लोग बगावत से बाज आएंगे, लेकिन हुआ बिलकुल इसके विपरीत। राजगुरु की फांसी के बाद अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा उमड़ पड़ा और जगह-जगह उन पर हमले शुरू हो गए। 


कौन थे पाइक?

पाइक खोर्धा के राजा के वह खेतिहर सैनिक थे, जो युद्ध के समय शत्रुओं से लड़ते थे और शांति के समय राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने में मदद करते थे। इसके बदले में उन्हें राजा की ओर से मुफ्त में जागीर मिली हुई थी, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने सत्ता हथियाने के बाद समाप्त कर दिया। यही नहीं, कंपनी ने किसानों के लगान कई गुना बढ़ा दिया, 'कौड़ी' की जगह रौप्य सिक्कों का प्रचलन किया और नमक बनाने पर पाबन्दी लगा दी। सन 1814 में पाइकों के सरदार बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र, जो मुकुन्ददेव-2 के सेनापति थे- की जागीर छीन ली गई और उन्हें पाई पाई के लिए मोहताज कर दिया।

इसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा और बढ़ गया। बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में पाइकों ने जंग छेड़ दिया। शीघ्र ही इस लड़ाई में खोर्धा के अलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक, कनिका, कुजंग और केउंझर के बागी भी शामिल हो गए।

साल 1817 में अंग्रेजों के अत्याचार से नाराज घुमुसर (बर्तमान के कंधमाल) और बाणपुर के आदिवासी कंध संप्रदाय के लोग बख्शी के सेना के साथ मिलकर अंग्रेजों पर धावा बोल दिया। यह सम्मिलित आक्रमण इतना भीषण था कि अंग्रेजों को खोर्धा से दुम दबाकर भागना पड़ा। बागियों ने करीब 100 अंग्रेजों की हत्या कर दी, सरकारी खजाने को लूटा और खोर्धा में स्थित कंपनी के प्रशासनिक दफ्तर पर कब्जा कर लिया। इसके बाद भी विद्रोहियों ने कई जगह अंग्रेजों को मात दी, लेकिन आखिरकार कंपनी के बेहतर युद्धास्त्र के सामने उन्हें हारना पड़ा। कई बागियों को फांसी दी गई, कइयों को बंदी बना लिया गया और 100 से भी अधिक लोगों को तड़ीपार कर दिया गया। 1817 के हीरो बख्शी जगबंधु की कटक के बारबाटी किले में बंदी बनाया गया जहाँ 1821 में उनका देहांत हो गया। 1817 से शुरू हुआ जंग 1827 तक चलता रहा, लेकिन अंत में अंग्रेजों की जीत हुई।


क्या कहते हैं इतिहासकार?

राज्य सरकार का तर्क है कि चूँकि 'पाइक विद्रोह' एक व्यापक और जायज लड़ाई थी और 'सिपाही विद्रोह' से पूरे 40 साल पहले हुआ इसलिए उसे आजादी की पहली लड़ाई की मान्यता दी जानी चाहिए। लेकिन इतिहासकार इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि इससे पहले भी ओडिशा, बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में बगावत हुई है। इतिहास के प्रोफेसर डॉक्टर प्रीतिश आचार्य कहते है कि राजनेताओं को इस पर बहस करने के बजाय ये निर्णय इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए।

लेकिन इतिहासकारों का एक तबका मानता है कि देश के इतिहास में 'पाइक विद्रोह' को उसका उचित दर्जा नहीं मिला है। ऐसे ही कुछ इतिहासकारों को लेकर सरकार ने एक कमिटी बनाई है और उसे सारे तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर एक दस्तावेज तैयार करने की जिम्मेदारी दी है, जो केंद्र सरकार को सौंपी जाएगी।

केन्द्र ने खोर्धा के बरुनेई पहाड़ के पास 'पाइक विद्रोह' का स्मारक बनाने के लिए ओडिशा सरकार से जमीन मुहैया कराने की अपील की तो वहीं पटनायक ने इस बगावत को 'आजादी की पहली लड़ाई' की मान्यता दिए जाने की अपनी मांग दोहराई।

रोचक बात यह है कि लगभग 200 साल पहले हुई इस लड़ाई के बारे में ओडिशा की नई पीढ़ी को भी बहुत कम पता है।